Abhishek Shukla

दरवाज़े

शब्द संख्या: 668

आपको खुले दरवाज़े कैसे लगते हैं?

मुझे हमेशा से ही बहुत पसंद हैं। जब मौका मिलता है, दरवाज़ा खोल कर कुर्सी डाल के बैठ जाता हूँ। कुर्सी न हो, तो ज़मीन पे बैठ जाता हूँ। अपना ही दरवाज़ा है भाई। कभी वहाँ बैठकर किताब पढ़ लेता हूँ, कभी चाय पी लेता हूँ, और कुछ नहीं तो फ़ोन तो है ही अपना फ़ुल-टाइम साथी, चलाता रहता हूँ। पर जो भी करूँ, आँखों के कोनों से नज़र बनाए रखता हूँ कि कोई आता-जाता दिख जाए।

है क्या, दरवाज़ा खुले रहे तो उम्मीद बनी रहती है। किसी नए के आने की, किसी पुराने से मिल जाने की। और कोई नहीं तो किसी भटके हुए से टकरा जाने की। सोचो न, आप एक पता ढूंढ़ रहे हो और लाइन से सभी दरवाज़े बंद हों। क्या करोगे आप? किसके पास जाओगे? ऐसे में मुझे अच्छा लगता है कि मैं वहीं बैठा होऊं, और वो भटका हुआ जब दिखे तो मैं आवाज़ लगाऊं और बोलूं, "हेलो, हाँ हाँ, आप। कोई मदद कर सकता हूँ आपकी?"

और सच बता रहा हूँ, जब वो इंसान चलते हुए अपनी तरफ आता है, उस प्रतीक्षा का जो सुख है न, बहुत कम चीज़ों में मिलता है। मैं तो दो-तीन बार चाय पिला चुका हूँ भटके हुओं को। बड़ा अच्छा लगता है उनसे मिलकर। उनसे बात करके समझ में आता है, भटकना कैसे होता है। दरवाज़े तकते रहना, और एक भी खुला न पाना। अपने घर में बंद बैठ ये समझ आता क्या? न, आ ही नहीं सकता।

और कभी कोई पुराना मिल जाए तो फिर तो बात ही क्या है। मेरे एक चचा मिल गए थे एक बार ऐसे ही। सब बोलते हैं बड़ी दूर से आए थे। एक ज़माने में हर दरवाज़ा उन्हीं का हुआ करता था। सुनने में आता है बड़े कठोर थे। अब उनका अपना कोई दरवाज़ा नहीं है। मुझे तो जब मिलते हैं, बड़े दीनदयालु से दिखते हैं। वो और मैं पहले साथ ही प्रार्थना करने जाते थे। अलग-अलग जगह, पर साथ में। फिर हमारे रास्ते अलग हो गए। पर अब भी हर कुछ दिन इस तरफ आ जाते हैं। मैं चाय बना देता हूँ, वो जेब से चने निकाल लेते हैं। मज़े बंध जाते हैं।

मैंने एक बार पूछा उनसे, "मैं ना बैठूं दरवाज़ा खोल के तो क्या करोगे?" तो तपाक से बोले, "मैं चने लेके न आऊँ तो चाय के साथ क्या खाएगा?" अब इस पर मैं क्या बोलूँ? चने हैं तो मजेदार चचा के।

एक बार मैंने और पूछा, "चचा, तुम भी अपना दरवाज़ा खोल के बैठते हो क्या?" तो बोले, "मेरा अपना दरवाज़ा होता तो तेरे पे आकर क्यों बैठता?" तो मैंने पूछा, "जब था तब बैठते थे?" तो कहते हैं, "नहीं बैठता था। इसीलिए तो अब है नहीं।" मैंने तबसे सीख लिया, चाहे जो जितना बोले, मैं तो दरवाज़ा खोल कर ही बैठूँगा।

मुझे कई लोग बोलते हैं कि दरवाज़े तो बंद करने के लिए होते हैं। उन्हें खोल दिया तो क्या फ़ायदा? ये तो वही बात हुई कि मुझे ताले खुले छोड़ के जाना बहुत पसंद है। अरे फिर ताला खरीदने का फ़ायदा क्या?

ऐसा नहीं कि मुझे समझ नहीं आता, पर मुझे क्या लगता है, हमने दरवाज़े इसलिए बनाए थे कि बाहर के ख़तरों से खुद को बचा सकें। कि कोई भी यूँ ही मूँह उठा के अंदर ना घुस आए। कोई हमें, जिनसे हम प्यार करते हैं, उन्हें कुछ कर न दे। पर हमसे ग़लती ये हो गई कि हमने मान लिया कि बाहर जो कोई भी है, वो ख़तरा ही है। अरे क्या पता कोई प्यार करने वाला ही बाहर छूट गया हो? अब वो जब भी कभी भटकते हुए आए, तो क्या करे? किसी का तो दरवाज़ा खुला होना चाहिए न?

तो कोई कितना भी बोले, मैं तो दरवाज़ा खोल कर ही बैठता हूँ। और कुछ नहीं तो ताज़ा हवा ही आ जाती है। थोड़ा दिमाग खुल सा जाता है।


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