Abhishek Shukla

अरिजीत का कॉन्सर्ट

शब्द संख्या: 2,899

"तुम चलो तो, तुम्हें भी मज़ा आएगा। और वैसे भी, तुमने कहा था इस हफ़्ते मेरी पसंद के हिसाब से बाहर जाएंगे।" यही बोलकर उस दिन वो मुझे कॉन्सर्ट अटेंड करने के लिए ले गई।

मुझे कभी कॉन्सर्ट अटेंड करने का कॉन्सेप्ट ही नहीं समझ आया। मतलब, जो गाना मैं घर पर अपने बढ़िया हेडफ़ोन्स में सुन सकता हूँ, उसके लिए मैं पहले हजारों रुपए खर्च करूँ, फिर दो घंटा लाइन में लगूं, फिर ठसाठस भरे एक ग्राउंड में खड़ा रहूं घंटों तक, और वो भी किसलिए? सिंगर को लिप-सिंक करते देखने के लिए।

"अरे, अरिजीत का कॉन्सर्ट है। वो लिप-सिंक नहीं करता," उसने कहा।

अरे पर तब भी, इतना झाम-झमेला क्यों करना? अरिजीत तो घर पे सुनने में भी अरिजीत ही रहेगा। वहां तो उसके मन के मुताबिक सुनना पड़ेगा, घर में तो जो मन वो लगाओ। साथ में चाहे खाना खाओ, चाहे काम करो, चाहे सिर्फ़ गाना सुनो। सुकून से, बढ़िया साउंड क्वॉलिटी में।

पर उसने कौनसी मेरी बात सुनी थी।

है क्या, उसका और मेरा मिज़ाज हमेशा से ही थोड़ा अलग रहा है। मुझे पसंद है अपने में रहना। मेरे हिसाब से घर पर हर चीज़ का बेहतर अनुभव किया जा सकता है। क्रिकेट मैच स्टेडियम में जाके देखो, आधे समय ये ही नहीं पता कि बॉल कहां है। हाइलाइट्स सब वहाँ भी बड़ी स्क्रीन पर ही देखनी पड़ती हैं। इससे तो घर पे बेहतर है। पूरा ज़ूम-इन स्लो-मोशन में देखने को मिलता है। खाना भी रेस्टोरेंट में खाने जाओ तो पहले तो बुकिंग करो, नहीं तो इंतजार करो, फिर बैठने की जगह मिल जाए तो खाने का इंतजार करो। अरे खाना ख़त्म करके बिल का इंतज़ार करो। और वहीं घर पे ऑर्डर कर लो, आहाहाहाहाहा, क्या सुकून। यहां तक कि नौकरी भी। घर से काम करो, समय बचाओ, पैसा बचाओ, लोगों की कच-कच से खुद को बचाओ।

पर उसे, उसे पसंद है कि वो दुनिया में एकदम घुस जाए। मतलब दो-तीन दिन घर पे रह ले तो ऐसा हो जाता है उसे जैसे जेल में रह ली हो। ऑफ़िस जाना है! क्यों? “अरे लोग होते हैं। मिलना होता है उनसे। माहौल बना रहता है।” माहौल! माहौल? खाना आर्डर कर लें? “नहीं। जाके खाएंगे।” क्यों? “अरे लोग होते हैं। थोड़ा देखने-सुनने को मिलता है। माहौल बना रहता है।” अच्छा। फिल्म देखनी है? “हां। सात साढ़े-सात का शो चलें?” “उसमें अच्छी सीट नहीं मिलती। तीन बजे का चलते हैं।” “पर वो खाली रहता है। हॉल भरा रहे तो मज़ा ज़्यादा आता है। माहौल बना रहता है।”

तो जब कॉन्सर्ट की बात हुई, तो भी मेरे सारे तर्कों का एक सीधा जवाब: “माहौल बना रहता है।” तो गए कॉन्सर्ट सुनने। पहले तो कैपेसिटी से ज़्यादा लोग भरे हुए हैं। फिर उसी बीच में फ़ूड स्टॉल्स लगा दिए हैं। उसपे भी बार्बेक्यू चल रहा है। फिर बीयर तो मिल ही रही है। और फिर लोगों का तो क्या ही कहना। ऐसा लग रहा है मानो सारी ऊर्जा यहीं के लिए बचा रखी है। जैसे यहाँ से वापस अपने पैरों पर नहीं जाना है, कोई उठा कर ले के जाएगा।

चलो जो भी है, कॉन्सर्ट शुरू हुआ। पहले एक घंटे तक “Are you ready?” “Are you excited?" “Are you having a good time?" करता रहा। अरे जिसे देखने आया हूँ, जब वो नहीं आया अभी तक तो काहे का good time। चालीस की कोल्डड्रिंक के लिए एक सौ बीस दे रहा हूँ, काहे का good time। और तो छोड़, आया था सोच कर कि चलो जो भी है, कम से कम अरिजीत को देखने मिलेगा। यहाँ स्टेज से चार किलोमीटर दूर खड़ा हूँ भीड़ के बीच ठंस के । काहे का good time?

पर अब मैं किस मूह से बोलूं? मेरे साथ में जो खड़ी है, वो तो हर सवाल पर 'Yeeeesssss' जवाब दे रही है चीख-चीख कर। उसने तो लग रहा है इस कॉन्सर्ट के लिए कोई पुरानी एफ-डी तुड़वा ली है। अरे दोस्त बना लिए हैं उसने तीन-चार इतनी ही देर में। और वो सब दोस्त मेरा चेहरा देख कर ही समझ गए हैं कि इस लल्लू से तो बात नहीं करनी है।

मेरी और उसकी कई बार लड़ाई होती है इस बात पर कि वो कभी-कभी मेरा भी तो पर्स्पेक्टिव समझे। मुझे नहीं ठीक लगता इतने लोगों में। मुझसे नहीं बनते दोस्त इतनी जल्दी। ऐसा ही हूँ मैं। ऐसे ही बड़ा हुआ हूँ। हां नहीं है ये ठीक, पर अब क्या करूं, ज़बरदस्ती खुद को असहज महसूस करवाऊं? नहीं न? क्यों वो मेरी बात समझ के वैसे नहीं कर सकती जैसा मुझे चाहिए।

वो बोलती है कि मैं उसका पर्स्पेक्टिव नहीं समझता। कि वो अपने ही तरीके से बड़ी हुई है। उसे भी कभी-कभी बुरा लगता है कि वो ख़ुद से, अकेले, समय बिताना नहीं जानती। कि उसे हमेशा और लोगों की ज़रूरत लगती है। और वैसे भी जब हम लगभग पूरा समय एक दूसरे के साथ घर में ही बिताते हैं, तो क्यों मैं उसके हिसाब से हफ्ते में दो-तीन बार बाहर नहीं जा सकता।

तो हमने तय किया कि हम एक दूसरे की पसंद के हिसाब से थोड़ा ढलने का प्रयास करेंगे। तो उसने मुझे ऑफिस जाने के लिए, उसके दोस्तों के साथ मॉल जाने के लिए, हर दूसरे दिन बाहर जाने के लिए ज़ोर देना कम कर दिया। और मैंने भी हफ्ते में एक-दो बार रेस्टोरेंट, एक बार मूवी या मॉल, और कभी-कभार उसके दोस्तों के साथ मिलने की सहमति दी।

कुछ दिन ठीक रहा, पर फिर भी झगड़े नहीं रुके। है क्या, हम लोग ना चाहते हुए भी यह चाहते हैं कि दुनिया हमारे जैसी हो जाए। हम बोलते हैं कि हम बदलना चाहते हैं, हम सबके हिसाब से चलना चाहते हैं, पर अंदर-ही-अंदर, हम वही चाहते हैं जो 'हम' चाहते हैं। ख़ास कर उनसे जो हमारे सबसे क़रीबी हैं। और बाकी दुनिया को हम फिर भी माफ़ कर दें, पर जब हमारे क़रीबी हमारे हिसाब से नहीं चलते न, तो तकलीफ़ तो बड़ी होती है। और वही तकलीफ़ फिर हम चाहते-न-चाहते हुए भी उन्हें देते हैं।

तो वही हम लोग करने लगे। बात मजाक से शुरू करते, फिर ताने कसने लगते, फिर किसी एक को बुरा लग जाता, फिर वो कुछ बोल देता, फिर दूसरा और ज़्यादा बोल देता, और देखते ही देखते, जंग छिड़ जाती। हर बार का यही हिसाब। और मेरे साथ क्या है, मुझे लड़ाई भी न शांति करना पसंद है। बैठ के, सीमित आवाज़ में। और उसे पसंद है चीखना। पूरे घर में घूम-घूम कर ज़ोर-ज़ोर से चीखना, इतनी ज़ोर से कि दीवार चीर कर आवाज़ पड़ोसियों तक पहुंच जाए।

अब मुझे इस बात पे गुस्सा आये कि मुझपे चीख क्यों रही है, शांति से बात क्यों नहीं कर रही। मतलब मैं बहरा हूँ क्या जो मुझे सुनाई नहीं देगा। और उसे इस बात पे कि मुझे उसके अभिव्यक्ति करने के तरीके से भी दिक्कत है, कि मैं उसे लड़ाई में भी 'स्पेस' नहीं देता, कि मैं ऐसे बर्ताव करता हूँ जैसे मेरा तरीक़ा ज़्यादा सही हो। और मैं उसे कभी नहीं समझा पाता कि क्यों मेरा तरीक़ा सच में ज़्यादा सही है।

और देखो जब लड़ाई होती है तो कोई दायरे नहीं रहते। फिर जिसके मूँह में जो आता है वो वो बोलता है। फिर माँ-बाप से लेकर पूरे ख़ानदान की बेज़्ज़ती होती है। एक दूसरे के व्यक्तित्व की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। कभी-कभी उन चीज़ों की भी जिनसे असल में कोई दिक्कत नहीं है। और तो और, उन चीज़ों की भी जिनसे शायद आपको लगाव है। पर लड़ाई में कुछ निषेध नहीं रहता।

हम लोग के बीच ये क़रीबन दो साल से चलता आ रहा है। हर हफ्ते एक बड़ी लड़ाई, फिर सुलह, फिर हर बीते दिन के साथ छोटे-मोटे ताने, बहसें, बेज़्ज़तियां, और फिर एक बड़ी लड़ाई। और शुरू में क्या होता था, कम-से-कम कोई एक मनाने चला जाता था। पर अब तो एक बार लड़ाई हुई और दोनों अपने-अपने कोनों में चले जाते हैं। वो किसी दोस्त के साथ प्लान बना के बाहर चली जाती है। मैं टीवी पर कुछ देख के समय निकाल लेता हूँ। फिर सुलह भी इसीलिए होती है क्योंकि रहते तो साथ ही हैं। काम साथ में पड़ता है। लेकिन यही लड़ाईयों का चक्कर चलता रहता है।

मतलब अभी तो हम उस जगह पहुंच गए हैं जहां हम लड़ते हुए भी घर के काम निपटाते रहते हैं। कि वैसे भले ही बात न हो रही हो, पर मान लो जैसे गीज़र सर्विसिंग वाला आया, तो दोनो साथ में खड़े होकर उसे बता रहे हैं कि क्या-क्या ठीक करना है। उसके जाने के बाद बात कर रहे हैं कि कुछ महीनों में चेंज ही करवा लेंगे गीज़र। कोई बाहर से आकर देखे तो उसे लगे ही न कि हम दोनों का तलाक़ चल रहा है।

हम साथ में घूमने भी जाते हैं, मूवी देखने भी, कम ही सही, पर मैं मिलता भी हूँ उसके सब दोस्तों से। और वैसे चाहे कुछ भी बोलें, पर एक-दूसरे के माँ-बाप से भी पूरी इज़्ज़त से ही बात करते हैं। और हम दोनों का ही ना इतना समझौता ज़रूर है कि घर में कुछ भी लड़ाई हो, पर दूसरों के सामने तमाशा नहीं करना है। है क्या, दोस्त चाहे उसके हों या मेरे, रिश्तेदार चाहे उसके हों या मेरे, तमाशे में मज़ा सबको लेना होता है। हम लोग आपस में मज़ाक भी करते हैं, कि अगर बाहर वाले हमारी लड़ाईयां सुन लें तो हमारी कोई इज़्ज़त नहीं रह जाएगी।

इसी वजह से बहुत मुश्किल रहा घर वालों को समझाना भी। देखो वैसे ही कोई माँ-बाप नहीं चाहते कि उनके बच्चे का तलाक़ हो। उसपे से भी जब उनके हिसाब से कुछ समस्या ही नहीं है, सब 'ठीक चल रहा है' तो बताओ वो कैसे मान जाएंगे? मतलब वो रोते हुए अपने घर पे फ़ोन करती। मैं गुस्से में अपने घर पे फ़ोन करता। फिर हमारे घर वाले एक-दूसरे को फ़ोन करते। और फिर दो-ढाई साल तक फ़ोन चलते रहते तब उन्हें समझ में आता है कि समस्या है।

अभी तो ऐसा हुआ कि जैसे ही हमने तय करके उन्हें बताया, दोनों के ही माँ-बाप ने सीरियसली नहीं लिया। मेरी मम्मी बोलीं, “कुछ भी बातें करता रहता है”। उसकी मम्मी बोलीं, “दिमाग ख़राब रहता है तेरा तो”। जब कुछ दो-तीन बार गंभीरता से समझाया तब उनके समझ आया कि ‘कुछ भी’ बात नह चल रही है और दिमाग सच में ख़राब हो चुका है। तब जाके दोनो परिवारों ने एक-दूसरे को फ़ोन घुमाया और मिलना तय किया।

और आसान नहीं रहा उन्हें समझाना। है क्या, आप ये बोलो कि उसमें बड़ी बुराइयाँ हैं, मेरे साथ गलत करता है, मुझे जीने नहीं देता है, तो लोग समझते हैं। पर ये समझाना कि आप दोनों अलग किस्म के लोग हो जिनकी एक साथ नहीं बन रही है, वो बहुत कठिन है। कि दूसरे में ऐसी कोई बड़ी बुराईयाँ नहीं हैं, बस वो आपसे अलग इंसान है और वही सारी समस्या की जड़ है। हम दोनों को खुद ये समझने में थोड़ा समय लगा। भला हो जो उस दिन मैं कैं-कैं करके ही सही, लेकिन कॉन्सर्ट चला गया।

वो ले रही पूरे मज़े। वहां अरिजीत गा रहा है, यहां वो और उसके ताज़ा-ताज़ा बने दोस्त गा रहे हैं। पूरी भीड़ गा रही है। किसी का पैर मुझपे पड़ रहा है, किसी की बीयर मुझपे छलक जा रही है, कोई झूमता हुआ मुझमें घुसा जा रहा है। मतलब बाहर दुनिया में लोगों का किसी को हाथ छू जाए तो ‘Oh, I’m sorry' बोल देते हैं। एक इंसान खड़ा हो रास्ते में और निकलना हो, 'Excuse me please' कर देते हैं। और यहां तो जिस चीज़ पर सॉरी बोलना चाहिए वो नहीं बोल रहे।

उतने में एक ने उल्टी कर दी मेरे पास में ही। भगवान का भला है मुझपे नहीं करी। और उल्टी करके भी ये नहीं कि रुक जाए, फिर बीयर पीने लग गया। और लोग ऐसी चीखें इस बात पे जैसे बड़ा किला फ़तह कर लिया हो। मेरा दिमाग ख़राब हो गया। मुझे आने लगी उल्टी की, पसीने की बास। म्यूज़िक लगने लगा मुझे शोर (सॉरी, अरिजीत), और ऐसी घुटन सी हुई मुझे कि वहां से भाग जाऊं। तो मैंने उसे बोला, “यार, मुझे बहुत अजीब लग रहा है। मुझे निकलना है यहां से।"

“अरे कुछ नहीं हुआ। थोड़ी देर रुको तुम्हें ठीक लगेगा,” वो बोली।

“मुझसे नहीं रुका जा रहा। मैं जा रहा हूँ”

“तुम्हें आज का एक दिन भी ख़राब करना है न? मैं कितने मन से आई हूँ तुम्हें पता है न?”

“तो ठीक है तुम रुको, मैं जा रहा हूँ। मुझे हवा चाहिए,” और मैं चला गया। क्योंकि मुझसे सच में नहीं रुका जा रहा था।

“ठीक है। जैसे ही मन करे लौट आना,” वो पीछे से बोली।

फिर मैं गया भीड़ से बाहर। ग्राउंड के पीछे में स्टॉल्स लगे थे बहुत सारे। वहां मैंने खरीदी एक कॉफ़ी और दो सौ रुपये देके एक कुर्सी किराए पर ली। और वहां से बैठके मैंने पूरा कॉन्सर्ट देखा। जहां पहले खड़ा था वहां से अरिजित आठ सेंटीमीटर का दिख रहा था, यहां कुर्सी पर से चार का। पर ठीक है न, बैठके देख रहा हूँ। और कहना पड़ेगा मज़ा तो बहुत आया। बिल्कुल ऐसा लग रहा था जैसे लाइव कॉन्सर्ट देख रहा हूँ लेकिन OTT वाली फ़ील के साथ। मैंने उसके बाद एक पिज़्ज़ा लिया, एक कोल्डड्रिंक ली, और मज़े से कॉन्सर्ट देखा।

जब मैं जाके बैठा ही था, तब मैंने तय किया था कि आज उस पर बहुत नाराज़ होऊँगा। उस समय गुस्सा आ भी रहा था। यहां मेरी तबीयत ख़राब है, और उसे मतलब ही नहीं है। पर कॉन्सर्ट ख़त्म होते तक मुझे महसूस हुआ कि अच्छा ही है कि मैं निकल आया। मुझे परेशानी नहीं थी कुछ अकेले बैठ के देखने में।

ख़त्म होते ही उसने मुझे कॉल किया। मुझे लगा बहुत नाराज़ होगी कि मैं बीच में छोड़ के आ गया। पर वो नाराज़ नहीं थी। बोली, “निकलते हैं अब, बहुत भूख लगी है।” तो हम पार्किंग में मिले, मेरे पास पिज़्ज़ा के दो स्लाइस बचे थे, जिसे देख के उसको तो मज़ा ही आ गया।

रास्ते में हम लोगों ने बात करी कि कैसे दोनों को ही मज़ा आया। वो बहुत नाची। और मैं बड़े आराम से बैठा। वो बोली उसने भी तय किया था नाराज़ होगी मुझपे निकलते ही, पर उसका मन ही नहीं हुआ फिर। हम लोग घर लौटे, खाना खाया, और सो गए।

पर उस दिन हम दोनों को समझ आ गया कि समस्या शायद यही है कि हमारा जीवन को देखने का नज़रिया ही अलग है। मैं बारिश होती है तो चाय बना के सोफ़ा पे बैठने की सोचता हूँ, वो छत पे जाने का। मैं बच्चे देख के पंद्रह कदम दूर हो जाता हूँ, वो बच्चों को गोद में उठा लेती है। सुबह बढ़िया धूप निकली हो तो मेरा मन होता है बैलकनी पे बैठ के फोन चलाने का, उसे बाहर टहलना होता है। हाँ, हमारी समानताएं भी हैं, पर शायद उतनी नहीं जितनी होनी चाहिए। जब खाने से लेकर बाहर जाने तक हर चीज़ में पसंद अलग हो, तो साथ रहना मुश्किल है।

और होता क्या है, शादी से पहले मिलने का समय सीमित होता है, तो आप दूसरे के हिसाब से भी थोड़ा ढल जाते हो। तो मैं उसके साथ कहीं भी टहलने चला जाता था, और वो मेरे साथ बैठ के Netflix and chill कर लेती थी। पर शादी के बाद आप चाहते हो वैसा जीवन जीना जैसा आपका मन हो। बस यहीं बात अटक जाती है।

तो हमने अगले कई हफ़्तों तक इस पर विचार किया। और हमने देखा कि हम जहाँ साथ भी जाते हैं वहाँ ज़्यादा खुश अलग-अलग होकर ही होते हैं। और हमारे सबसे अच्छे दिन वो होते हैं, जब मैं अपने हिसाब से दिन बिताता हूँ और वो अपने हिसाब से। हम साथ रहते तो हैं, पर हम जीना अलग-अलग ही चाहते हैं। और तो और, जब हमने तलाक़ की बात करी, हमने देखा कि तलाक़ के विचार से हम दोनों में से कोई भी उतना परेशान नहीं हुआ जितना हमारे माँ-बाप के हिसाब से होना चाहिए था। हमें पता चल गया कि यही सही रहेगा।

तो बस, अभी घर वालों को बता दिया है, कोर्ट में फ़ाइल कर दिया है। अब कुछ महीने चलेगा ऐसे ही, और फिर, अलग। तनाव तो है काफ़ी। अभी जो घर वाले और रिश्तेदार बोल रहे हैं वो एक तरफ़ और आगे जाके जो सहना पड़ेगा उसका डर एक तरफ़। तलाक़शुदा लोगों का बड़ा ख़राब नाम हो जाता है। पूरी ज़िंदगी लड़ते हुए बिता दो तो लोग इतना हल्ला नहीं काटते, पर अपने भविष्य के लिए आज अलग होने का फ़ैसला ले लो पूरा घुस ही जाते हैं।

हमारी वकील ने कहा था कि सामाजिक और पारिवारिक दबाव में कई लोग फ़ैसला वापस लेते हैं। मैंने इंटरनेट पर पढ़ा कि कई लोग इसलिए भी वापस लेते हैं क्योंकि उनके पास और कोई समझने वाला ही नहीं होता। जिससे वो अलग हो रहे हैं, सिर्फ़ वही उनका दर्द जानता है, क्योंकि वो भी उस दर्द को जी रहा है। हमने इसीलिए तय किया ही जब तक कार्यवाही पूरी नहीं हो जाती, हम मिलते रहेंगे। कोई तो बात करने को, समझने को होना चाहिए न? बाक़ी लोग तो तमाशा देखने को बैठे रहते हैं।

कल खाने पे मिले थे तो बात हो रही थी कि तलाक़ के बाद क्या प्लान हैं। तो मजाक में यूँ ही बात निकली कि अब कम-से-कम डेढ़-दो साल तक फिर से शादी का नहीं सोचेंगे। और अगली बार जब शादी का मन बनाएंगे तो सबसे पहले अरिजीत के कॉन्सर्ट जाएँगे। और इस बात पर हम दोनों ख़ूब हंसे।

आज कल, हम जब भी मिलते हैं, ख़ूब हँसते हैं।


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